Thursday, November 4, 2010

"दीपक का वनवास"





जगमग-जगमग चमकते घर-आँगन...
नज़रों का कभी लगता धोखा...
इतनी सुन्दरता,
अब देखनें की, आदत जो ना रही थी...
अँधेरा बस चुका था, आँखों के पोरों में...
आज...
बरसों बाद बूढी आँखों की रौशनी भी लौटी थी...

चौदह बरस का वनवास... ... ...
एक राम नें देखा, एक इन आँखों नें...
उसे (राम) वनवास भेजा पिता के वचन नें...
इन्हें (आँखों) वनवास भेजा पिता के दहन नें...
आज लौटी थी ये करनें मिलन...
अपनें घर की ड्योढ़ी से...
उस आँगन के पीपल पर सजे, दीपों की माला से...
जिन्हें सजाते थे कभी, ये बूढ़े हाथ...
भर के चमक नयनों में...
और मुस्कान लबों पे...

मगर, आज...
वहां नहीं दीपों की लड़ी...
वहां तो जल रहा है सिर्फ 'एक दीपक'...
अकेला... ... ...

शायद उसके वनवास का वक़्त...
अभी बाकी था... ... ...
शायद उस पीपल के नीचे मना रहा था दीपावली...
वो दीपक... अकेले... ... ...

लंका में अशोकवाटिका में बैठी ’सीता’ की तरह...
अपनें राम के "इंतज़ार" में... ... ...!!

::::::::जूली मुलानी::::::::

::::::::Julie Mulani::::::::

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