Tuesday, November 23, 2010

'ज़िन्दगी'... तू "ज़िन्दगी" क्यों है...???







बोझिल मन... आँखें... सांसें...
ऐसा तारतम्य...
ना देखा आज से पहले...
ऐसी सांठ-गाँठ...
क्यों नहीं कर पाती यें... खुशियों में...???
जितना खोलनें की कोशिश करती...
उतनी ही इसकी गांठें और गुथती जाती...
और उन गांठों में फंसती जाती...
ज़िन्दगी... ... ...
धीरे-धीरे घुटती... गिरती... संभलती...
पर उफ़ ना करती...
शायद अब इस घुटन से...
इस उतार-चढ़ाव से...
बाँध ली थी उसने भी गांठें अपनी...

मगर...
ये क्या... धीरे-धीरे... हर गाँठ खुलनें क्यों लगी...???
अब... जब आदत हो चुकी...
फिर ये ढीलापन... ये खुलापन...???
उफ्फ्फ... ... ...
ऐ ज़िन्दगी... क्यों... करती है तू ऐसे...???
ये 'परिवर्तन' हमेशा तब ही क्यों...
जब हमें आदत हो चुकी होती है...
उसमें ढलनें की... ... ...

ज़िन्दगी... क्या हक है तुझे...
यूँ खेलने का... खुद की जिंदगी से...
क्यों नहीं हर तरफ... सुकूँ... शान्ति... मोहब्बत...???
क्यों है हर तरफ... मजबूरी... उदासी... लानत...???
माय-सा ख़ुमार तुझमें...
चढ़नें में बरसों लगाती...
और फिर पानी के चंद छींटों से...
सारा ख़ुमार उतार डालती...

तुझे जीना चाहती तो तू भागती...
जो रुक जाती...
तो साये-सी पीछे आती... ... ...
खुद पे, हक दिया तुझे...
क्या मैं 'अभागन'... नहीं... खुद की ही ज़िन्दगी के...
भरोसे... के 'काबिल'...???
मेरी होके भी तू 'पराई' क्यों है...???
'ज़िन्दगी'... तू "ज़िन्दगी" क्यों है...???

::::::::जूली मुलानी::::::::
::::::::Julie Mulani::::::::

5 comments:

  1. भहुत सुंदर ब्लोग !
    बहुत अच्छी कविताएं !
    बधाए हो !
    फ़िर आऊंगा !

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  2. बधाई हो जी बधाई !
    लख-लख बधाई !

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  3. बहुत बहुत शुक्रिया ओम जी... इंतज़ार रहेगा आपका...!!

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  4. सुन्दर अभिव्यक्ति...
    जिंदगी से संजीदा संवाद करती रचना!

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  5. वाह जूली जी मन प्रसन हो गया पढ़ के तो बिना कमेन्ट किये रहा न गया .

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