'हंसी-ठिठोली', मस्तियों की "टोली"... करें 'अठखेली', बन "हमजोली"...
हर 'साल' की तरह... लो फिर आई "होली"... ... ...
लेकर... ... ...
वही 'रंग'... वही 'ढंग'...
वही 'रस्म'... वही 'रिवाज़'...
मगर... ... ...
रंगों में वो 'चमक' नहीं...
ढंगों में वो 'दमक' नहीं...
रस्मों में वो 'विश्वास' नहीं...
रिवाजों में वो 'एहसास' नहीं...
पहले बिक ना पाता था 'प्यार'...
अब उसकी 'बोली' लगती है...
पहले ख़रीदा ना जाता था 'ऐतबार'...
अब उसको 'होली' जलती है...
हर 'चौराहे' पर प्रकृति का "हास" हो रहा है...
होलिका 'हंस' रही है, प्रहलाद का "उपहास" हो रहा है...
"मानवता-भाईचारे" का रंग कहीं 'छुप-सा' गया है...
"ईर्ष्या-द्वेष" के रंग से चेहरा उनका 'पुत-सा' गया है...
मिठाइयों की 'मिठास', मन की "कडवाहट" ना भरती...
मदिरा की 'प्यास', ठन्डे चूल्हों में गर्म "आहट" ना करती...
गुब्बारों की 'चोट' में वो "स्नेह" नहीं...
पिचकारियों की 'धार' में वो "नेह" नहीं...
फागुन में 'गूंजता' अब "फ़ाग" नहीं...
गीतों में 'घुलता' अब "राग" नहीं...
कैसी मना रहा 'आज' होली ये "संसार" है...???
"एकजुट" जो रहते थे 'कभी'... 'बंट' चुके वो "घर-बार" हैं...!!
:::::::: जूली मुलानी ::::::::
:::::::: Julie Mulani ::::::::
अच्छा तारतम्य रचा है आपने, कि कैसा बासीपन आ गया है संबंधों और व्यवहारों मे ... बधाई.
ReplyDeletenice thoughts ...
ReplyDeleteरविन्द्र दास जी... "बांसीपन" रिश्तों में नहीं 'सोच' में आ गया है... उसमें 'ताज़गी' लानी ज्यादा जरूरी है... पसंद करने का बेहद शुक्रिया...!! :-)
ReplyDeletePramod jee... Thank-U 'so much'...!! :-)
ReplyDeletewah re holi...........:)
ReplyDeletepar sachchai ye hai ki kuchh bhi ho, ab bhi tajgi hai iss holi me....par hamari soch kuchh budhane lagti hai...isliye ham khud ko shant kar lete hain...:)
ek utkrisht rachna...
kabhi hamare blog pe aayen